अध्यात्मयोग एवं भावनायोग
योग का महत्त्व बहुत अधिक है, जन्म-मरण से त्रस्त और इनसे मुक्ति चाहने वाली मुमुक्षु आत्मा को योग की अत्यन्त आवश्यकता होती है। क्योंकि मोक्ष के साथ मिलन करवाने का मार्ग योग ही है। ‘मोक्षेण योजनाद् योग’ अर्थात् जो मोक्ष से मिलवाए वह योग है, इसीलिए इसे योग कहते हैं। इससे यह समझ आता है, कि योग का इतना महत्त्व है, कि यदि मोक्ष की इच्छा है, तो जीवन को ही योगमय बना देना चाहिए। मोक्ष मानव भव में ही सम्भव है, इसलिए मानव भव का पूरा जीवन योगमय बना ही देना चाहिए।
समग्र जीवन को योगमय बनाने का तात्पर्य यह है, कि योग को जीवनव्यापी बनाएँ, मगर कैसे? इस हेतु श्री जिनशासन में योग के पांच प्रकार बताए हैं, उनमें पहला ‘अध्यात्म’ नामक योग है। योग के पांच प्रकार इस प्रकार हैं :
‘अध्यात्मं भावना ध्यानं वृत्तिसंक्षयः’
इसमें पहला अध्यात्म योग ऐसा योग है जो जीवन के हर क्षेत्र में हर बात में व्याप्त हो सकता है। तो क्या खाते-पीते भी अध्यात्म योग हो सकता है? हाँ ! अध्यात्म का स्वरूप ही ऐसा है कि इसे धार्मिक और सांसारिक, हर क्षेत्र में हर मामले में स्थान मिल सकता है। तो इसका स्वरूप क्या है?
‘अध्यात्म’ अर्थात् सर्वज्ञ कथित जीव, अजीव आदि नवतत्त्व का चिन्तन। किन्तु यह व्रत के साथ होना चाहिए, परोपकार वृत्ति के साथ होना चाहिए और मैत्री आदि भाव से युक्त होना चाहिए। अर्थात् परार्थवृत्ति और मैत्र्यादि भाव वाले व्रतधारी का तत्त्व-चिन्तन ही अध्यात्मयोग है।’ तत्त्व चिन्तन में तीन विशेषण क्यों डाले गए? प्रत्येक विशेषण की क्या विशेषता है? यदि ये न हो क्या समस्या आ सकती है? ये सब बातें बाद में करेंगे, लेकिन पहले यह देखना है, कि तत्त्व चिन्तन अध्यात्मयोग कैसे है? और यह जीवनव्यापी, यानि जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में कैसे सम्मिलित है? यह विचार स्पष्ट होने से योग साधना चौबीस घण्टे सतत चालू रह सकती है।
अध्यात्म, अर्थात् तत्त्व चिन्तन को जीवनव्यापी बनाने के लिए पहले इतना ध्यान रखना आवश्यक है, कि यह तत्त्व चिन्तन ऐसे करना है, कि आत्मा इससे भावित हो। क्योंकि अध्यात्म योग के बाद भावना योग है, अतः यहाँ उसका अभ्यास हो जाएगा। तत्त्व चिन्तन से आत्मा अभ्यस्त हो जाए, तो यह आत्मा की योगदशा है। यहाँ प्रश्न हो सकता है कि तत्त्व चिन्तन से आत्मा अभ्यस्त हुई, ऐसा कब माना जाएगा ?
यदि बातों की बातों में, हर प्रसंग पर जीव, अजीव, आस्रव, संवर आदि एक या अधिक प्रकार के तत्त्व तुरन्त नजर आए तो माना जाएगा। जैसे,
‘समरादित्य केवली’ चरित्र में एक प्रसंग आता है जिसमें सेठ का पुत्र समुद्रदत्त अपने सेवकों के साथ विवाह के पश्चात् पहली बार अपने माता-पिता के आग्रह से अपनी पत्नी जिनमति को लाने के लिए अपने ससुराल के गाँव जा रहा था।
ग्रह से क्यों? क्या उसे अपनी नई पत्नी को स्वेच्छा से लाने की उत्सुकता नहीं है? नहीं, बात यह है, कि वह जिनवचन से भावित मति वाला था, जिनवचन कथित तत्त्व से भावित मति वाला था, तत्त्व चिन्तन से अभ्यस्त था, इसलिए जैसे ही पत्नी को लाने की बात हुई, तो मन में पहला विचार यह आया, कि पत्नी अर्थात् आस्रव, क्योंकि उसका मुख देखना आँखों को भाएगा, उसके मीठे बोल कान को अच्छे लगेंगे, उसका कोमल स्पर्श शरीर को अच्छा लगेगा। इन्द्रियों के इस आनन्द से कर्म आत्मा की ओर बहते चले आएँगे। इसलिए यह आनन्द, ये इन्द्रियाँ और आनन्ददायी पत्नी, उसका रूप, स्पर्श, शब्द आदि विषय आस्रव तत्त्व हैं.इससे आत्मा में कर्म बन्ध होगा। इसलिए पत्नी को लाने की जल्दबाजी क्यों करनी? इसमें तो देर करना ही ठीक, इसलिए माता-पिता के आग्रह से वह पत्नी को लाने गया।
अब जंगल के रस्ते में चलते-चलते एक पेड़ के नीचे वह विश्राम करता है तो वहाँ उसका सेवक बैठा-बैठा सलिए से जमीन खोद रहा था। खोदते हुए उसे जमीन में दबा एक घड़ा दिखा। उस पर ढक्कन के रूप में लगा पत्थर हटाया तो सेवक को उसमें स्वर्ण-मुद्राएँ दिखी।
समुद्रदत्त की भी वहाँ दृष्टि गई, तो वह तुरन्त बोला, ‘अरे ! तू क्या कर रहा है? यह तो अधिकरण है, अनाधिकार को वापिस ढक दे और इस खड्ढे में वापिस दबा दे। और चल, यहाँ से चलते हैं। नहीं तो इस धन से बुद्धि खराब होगी।’
श्रेष्ठि पुत्र की दृष्टि कैसी है? स्वर्ण-मुद्रा को अधिकरण कहना। जीव को महाराग करवा कर दुर्गति की ओर ले जाए, वह अधिकरण कहलाता है। जैसे पत्नी को विषयों का आस्रव माना, उसी प्रकार स्वर्ण-मुद्रा का धन भी आस्रव ही है। इसके लिए ज्ञेय-अज्ञेय की बुद्धि नहीं, बल्कि हेय की बुद्धि होनी चाहिए। समुद्रदत्त को भी नफरत है, क्योंकि उसने जिनोक्त नव तत्त्वों के चिन्तन के अभ्यास के द्वारा अपनी आत्मा को तत्त्व से अभ्यस्त किया हुआ था। जैसे ही कोई प्रसंग उपस्थित होता, वह तत्त्व भी उसके समक्ष प्रस्तुत हो जाता।
जंगल में, एकान्त में स्वर्ण-मुद्राओं से भरा घड़ा मिले, तो क्या उसे छोड़ा जा सकता है? लेने से पहले मात्र देखते ही आँखों में चमक नहीं आ जाती? मन में मीठे-मीठे सपने नहीं आते? लेकिन ये सब किसे महसूस होगा? जिसे उस स्वर्ण में कल्याण दिखे। जिसके हृदय में जिनोक्त तत्त्व बस चुके हो, उसे तो उस स्वर्ण में महा-राग, महा-ममता, महा-आरम्भ और महा-विलास जैसे पापों का सृजन ही दिखाई देते हैं, और इससे आत्मा का अधःपतन होता देख वह उसमें नफरत ही अनुभव करता है। जिसके हृदय में तत्त्व बस गए हों, ये उसकी बात है।
तत्त्व का हृदय में बसना तभी होगा जब हृदय तत्त्व से भावित हो, तत्त्व को दिल में अभ्यस्त करने के लिए तत्त्व चिन्तन किया जाता है। यह करना आवश्यक है, इसलिए दिन में मात्र आधा-पौना घण्टा निकालकर यह हो जाएगा, तो मान लीजिए, कि यह सम्भव नहीं, तत्त्व चिन्तन तो सतत होते रहना चाहिए।