लाछीदेवी

  • 22 Sep 2020
  • Posted By : Jainism Courses

साधर्मिक भक्ति की कैसी अपार महिमा है । तराजू के एक पलड़े में जीवन के समस्त जप-तप तथा धर्मक्रियाएँ रखे और दूसरें पलड़े में धर्ममय अंतःकरण से की हुई एक अकेली साधर्मिक भक्ति रखें , तो ये दोनों पलड़े एक समान रहेगे । पर्युषण पर्व के पाँच कर्तव्य एवं श्रावक के ग्यारह कर्तव्यों में भी साधर्मिक भक्ति का अपना अनोखा स्थान है । ऐसी साधर्मिक भक्ति का उत्कृष्ट उदाहरण है लाछीदेवी !

कर्णावती के शालपति त्रिभुवनसिंह की पत्नी लच्छी अपने दास-दासियों के साथ प्रभुदर्शन के लिए निकली थी । इस समय साबरमती नदी के किनारे पर स्थित ऊँचे शिखर एवं उत्कृष्ट स्थापत्यमय जिनालय में भगवान के दर्शन-चैत्यवंदन करके मारवाड़ का उदा बाहर बैठा था । देरासर की सीढ़ियों से उतरते हुए लाछी ने मैलेकुचैले कपड़ों में बैठे हुए उदा को देखा । परदेश से आया हुआ कोई साधर्मिक-सधर्मी है ऐसा जानकर लाछीदेवी ने भाव से पूछा , " भाई , इस कर्णावती में तुम किसके मेहमान हो ? " लाछी के मधुर वचनों में उदा ने आत्मीय स्वजन की मीठी मधुर वाणी सुनी । उदा ने कहा , " बहन , प्रथम बार ही इस प्रदेश में आया हूँ । इस कर्णावती में हम परदेशी को कौन पहचाने ? तुमने मुझे बुलाया यानी कुछ -अधिक माना तो तुम मेरे परिचित समझे जाओ । इसलिए हम तो तुम्हारें मेहमान है । "

लाछीदेवी ने आनंदविभोर होकर कहा , " मेरे अपने घर साधर्मिक भाई मेहमान हो यह तो अपना अहोभाग्य समझती हूँ । चलिए , तुम हमारे मेहमान । अपने परिवार के साथ मेरा आँगन पावन कीजिए । "

मारवाड़ का उदा मेहता अपनी पत्नी सुहादेवी तथा चाहड़ और बाहड़ नामक दो पुत्रों को लेकर लाछी के वहाँ गया । उसने बहुत प्रेम से उदा और उसके परिवार को भोजन करवाया । उदा ने पूछा , " मुझ पर इतने अधिक प्रेमभाव का कारण ? "

लाछी ने कहा , " तुम दुःखी साधर्मिक हो । साधर्मिक की सेवा यह तो सच्चे जैन का कर्तव्य है । "

मारवाड़ के उदा को लाछी ने रहने के लिए घर दिया । गरीब उदा को तो मानो मकान नहीं , महल मिल गया ! नौ खंड की नवाबी-साहबी प्राप्त हुई हो इतना आनंद हुआ । समय व्यतीत होने के पश्चात् उदा ने लाछी का वह घर खरीद लिया । कच्चे मकान को ईटों के पक्के मकान में परिवर्तित करने का विचार किया । उसने जमीन में नींव खुदवाना प्रारंभ किया तो उसमें से धन के चरु बाहर निकले । उसने लाछी को बुलाकर तथा दो हाथ जोड़कर कहा ,

" बहन , यह अपना धन ले जाओ । आपके मकान में से निकला है , इसलिए यह धन आपका है ।"

लाछी ने कहा , " ऐसा नहीं हो सकता । घर तुम्हारा , जमीन तुम्हारी यानी यह धन भी तुम्हारा । "
उदा ने कहा , " मेरे लिए तो यह धन बिना हक-अधिकार का गिना जाये । यह मेरे काम का नहीं । तुम्हें लेना पड़ेगा । " लाछी ने तो उसे छूने तक की ना कही । आखिर बात महाजन के पास पहुँची । महाजन भी क्या करे ? दोनों में से कोई भी धन लेने को तैयार न हुआ , इसीसे इसका हल कठिन था । अंत में बात राजदरबार तक पहुँची । राजा कर्णदेव भी सोच-विचार में पड़ गये । रानी मीनलदेवी ने दोनों को आधा-आधा भाग देनें का फैसला किया , पर लाछीदेवी तथा उदा मेहता इतना भी बिना अधिकार का कैसे लें ? उन्होंने कहा , " जिसका कोई मालिक नहीं उसका मालिक राज्य । आप यह स्वीकार लीजिए । " राजा कर्णदेव सोलंकी ने विचार किया कि प्रजा जिसका स्वीकार न करें , ऐसे अनाधिकार के धन को वह कैसे ले सके !

अंत में उदा मेहता ने कहा , " जो धन राज्य को भी स्वीकार न हो वह देव को अर्पण हो । " इस धन से कर्णावती नगरी में देरासर बनवाया गया , जो ' उदयन विहार ' के रुप में विख्यात हुआ । उदा मेहता कर्णावती के नगरसेठ , तत्पश्चात् राजा सिद्धराज के मंत्री और आखिर खंभात के दंडनायक बने , पर जीवनभर अपनी बहन लाछी की साधर्मिक भक्ति को सदाकाल हृदयपूर्वक वंदन करते रहे ।

साभार : जिनशासन की कीर्तिगाथा