पांडित्य , वीरत्व एवं धर्मभावना से सुशोभित नगरी उज्जैनी के निकट बसे हुए एक छोटे से गाँव में बालाशा नामक धर्मिष्ट युवक रहता था । इस युवक की मातृभक्ति उदाहरणीय मानी जाती । वह गृहकार्य में माता की सहायता करता और धर्मयात्रा में उनके साथ जाता । एक बार बालाशा उज्जैनी नगरी में गया । इस नगरी में बड़ी-बड़ी दुकानें थी और उनमें अनेक चीज-वस्तुएँ बिकती थीं । बालाशा ने सोचा कि उसकी माँ जमीन पर सोती है , यह उचित नहीं हैं । इसलिए उसने पलंग खरीदा ।
पलंग लेकर बालाशा घर आया । उसने अपनी माता से बात कही । बालाशा की माता पुत्र की मातृभक्ति देखकर प्रसन्न हो गई । परंतु साथ ही साथ जोरों से हँस पड़ी । उसने बालाशा से कहा , " हमारा घर छोटा है । उसमें इतना बड़ा पलंग कैसे रहेगा ? माता की बात सुनकर बालाशा भी विचार में पड़ गया । बालाशा की माता ने कहा कि इस पलंग के चारों पाये निकाल दे तभी वह घर में जायेगा । "
माता की आज्ञानुसार बालाशा ने पलंग खोल डाला , तो पलंग के चारों पायों में से हीरों-रत्नों का ढेर हो गया । बालाशा को अचानक ही कीमती हीरे प्राप्त हुए । माता और पुत्र ने सोचा होता तो भव्य महल के समान मकान बनाकर आनंद-प्रमोद से रह सकते, परंतु बेशुमार धन से जीवन में कोई फर्क नहीं आया । पहले की तरह सादगी से ही रहने लगे । बालाशा की माता को श्री शत्रुंजय तीर्थ की यात्रा करने और तीर्थाधिराज आदिनाथ प्रभु के दर्शन करने की भावना जाग उठी । पावन गिरिराज के दर्शन , स्पर्शन और पूजन करके स्वजीवन को धन्य बनाने का विचार जाग्रत हुआ ।
ऐसे में बालाशामाता को जानकारी प्राप्त हुई कि समराशा छ'री पालनेवाला संघ लेकर श्री शत्रुंजय तीर्थ की यात्रा पर जा रहा है । छ'री पालते संघ के साथ जाना यह तो महाभाग्य कहलाये । माता ने पुत्र को बताया और बालाशा अपनी माता को लेकर समराशा के संघ में श्री शत्रुंजय तीर्थ में आ पहुँचें ।
सवेरे सबसे प्रथम दोनों ने नवरत्नों से प्रभु की पूजा की । दूसरें दिन अट्ठारह रत्नों की बोली बोलकर माता-पुत्र गिरिराज से तलहटी में आये । दूसरी ओर संघपति समराशा प्रथम पूजा का लाभ नहीं उठा पाये , इसलिए लाभ प्राप्त न हों तब तक उन्होंने उपवास करने का नियम प्रतिज्ञा ली । दूसरें दिन भी इतनी बड़ी बोली होने से समराशा ने दूसरें दिन भी उपवास किया । जब बालाशा और उसकी माता ने जाना कि ऐसा संघ निकालनेवाले संघवी समराशा प्रथम पूजा का लाभ लेना चाहते है । साथ ही यह लाभ प्राप्त न हो तब तक उन्होंने उपवास करने का व्रत-नियम लिया है । समराशा के संघ में आनेवाले बालाशा और उसकी माता सोच-विचार में पड़ गये । उन्होंने देखा कि समराशा जैसे धर्मनिष्ट संघवी की भावना सिद्ध होनी चाहिए । पहली पूजा का लाभ उन्हें मिलना चाहिये । इसलिए माता और पुत्र दोनों दूसरें दिन संध्या को समराशा को मिलने गये । तीसरे दिन पहली पूजा करने के लिए उन्होंने समराशा को छत्तीस रत्न दिये , यही नहीं पर बालाशा की माता ने अपने हाथ से संघवी समराशा को पारणा करवाया ।
बालाशा के पास अब भी अत्यधिक संपत्ति थी । उन्होंने श्री शत्रुंजय तीर्थ पर भव्य बालाशा शिखर बँधवाया । इस शिखर में श्री आदीश्वर भगवान का भव्य जिनालय बँधवाया और यह " बालाभाई की टूँक " या
" बालावसही " रुप में प्रसिद्ध हुई । इस बालाशा के टूँक में आज 270 पाषाणबिंब हैं , 458 धातु के बिम्ब है और तेरह जितने छोटे देहरे-मंदिर है ।
माता के संस्कार कैसे उदारहृदयी पुत्र शासन को भेंट में देते हैं यह बालाशामाता के चरित्र में दृष्टिगत होता हैं ।
साभार : जिनशासन की कीर्तिगाथा