मूलाधार चक्र ध्यान
- Pujya Muni Shri Shatrunjay Vijayji Maharaj Saheb
१. सबसे पहले शान्त चित्त होकर पद्मासन या सुखासन में बैठें।
२. फिर तीन मिनिट तक अनुलोम-विलोम करें। इसमें दाहिने हाथ के अँगूठे से दाहिनी नासिका बन्द करें, और बाईं नासिका से श्वांस लें, फिर दाहिने हाथ की तर्जनी से बाईं नासिका बन्द करके दाहिनी नासिका से श्वांस छोड़ें। फिर इसी मुद्रा में दाहिनी नासिका से श्वांस लें और अँगूठे से दाहिनी नासिका बन्द करके बाईं नासिका से श्वांस छोड़ें।
३. फिर शरीर को ढीला छोड़कर शान्त चित्त होकर आज्ञाचक्र (कपाल) पर ध्यान केन्द्रित करें और ॐकार का सात बार नाद करें।
४. फिर श्वासोच्छ्वास पर मन को केन्द्रित करें, शरीर ढीला रखें और मन, वचन एवं काया ध्यान की तैयारी करें। अब ऐसा विचार करें, कि आप ध्यान के लिए पूरी तरह तैयार हैं।
५. अब मन में एक सरोवर की कल्पना करें। सरोवर के किनारे नन्दनवन जैसे एक रमणीय उद्यान की कल्पना करें। उस नन्दनवन में सरोवर के किनारे एक अशोक वृक्ष की कल्पना कीजिए। यह अशोक वृक्ष अत्यन्त प्रभावशाली एवं सभी प्रकार के शोक दूर करने में सक्षम है। आप उस वृक्ष के नीचे पद्मासन या सुखासन मुद्रा में पूर्वाभिमुख होकर बैठे हैं। अमावस्या की रात्रि बीतने के बाद भोर के सूर्योदय के अद्भुत दृश्य की कल्पना कीजिए। सरोवर का मनोरम दृश्य, सूर्य के साथ खिलते हुए कमल, अन्य जलचर जीव, पक्षियों का कलरव आदि अनुभव करें।
फिर दोपहर का सूर्य देखें। बाहर की गर्मी के कारण सरोवर के जीव अन्दर चले गए, इसलिए पूर्ण शान्ति है। आप अशोक वृक्ष के नीचे बैठे शीतलता अनुभव कर रहे हैं। चारों ओर गर्मी होने पर भी वृक्ष के नीचे शीतलता है। शाम के समय सूर्यास्त होता देखें। सभी पक्षी अपने घोसलों में लौट रहे हैं, सरोवर के जीव पुनः खेल रहे हैं, सूर्य पर निर्भर कमल भी बन्द हो रहे हैं। अब पूर्ण सूर्यास्त हो गया, जरा भी उजाला नहीं रहा, अमावस की रात है, तारे टिमटिमा रहे हैं।
रात्रि का एक प्रहर बीतने के बाद, आप देख रहे हैं कि सरोवर में स्थित तेजस्वी किरणों सा दिखने वाला अमृत झरना आकाश की ओर उछल रहा है। वह पवित्र अमृत जल उछलते हुए आपकी ओर भी आ रहा है, ऐसा विचार कीजिए। वह जल पहले आपके चरणों को स्पर्श कर रहा है। पानी धीरे-धीरे बढ़ रहा है, और अब हृदय, गले और मस्तक तक पहुँच कर पूरे शरीर को पवित्र कर रहा है, नहला रहा है।
वह जल ब्रह्मरन्ध्र तक पहुँच कर सबसे पहले “सुषुम्ना नाड़ी” को खोल रहा है। अब वह जल उसमें प्रवेश करके उस नाड़ी को पवित्र बना रहा है। फिर “वज्रा नाड़ी” खुल रही है, वह जल उसमें प्रवेश करके उस नाड़ी को पवित्र बना रहा है। फिर “चित्रिणी नाड़ी” खुल रही है, अब वह जल उसमें प्रवेश करके उस नाड़ी को पवित्र बना रहा है। अब “ब्रह्म नाड़ी” खुल रही है, और वह जल उसमें प्रवेश करके उसे पवित्र बना रहा है।
इस प्रकार समस्त नाड़ियों को पवित्र करते हुए अन्दर गया वह जल बाहर न निकले, इसलिए समस्त नाड़ियाँ बन्द हो रही है। अब मात्र शुद्ध चेतना है, अन्दर स्थित जल अब धीरे-धीरे शान्त और स्थिर हो रहा है, और अन्ततः पूर्ण स्थिर हो गया है। उस अमृत जल के कारण आत्मा भी एकदम पवित्र हो गई है, आनन्द अपने चरम सीमा पर पहुँच गया है।
६. फिर शान्त चित्त होकर सरोवर को देखिए, उसका अवलोकन कीजिए।
७. फिर विचार कीजिए कि दूर क्षितिज से लाल रंग की कोई चीज आ रही है। वह धीरे-धीरे निकट आ रही है, बड़ी हो रही है। वह लाल रंग का कमल है, अब उसकी लाल रंग के कमल की पंखुड़ी देखिए, वह कमल धीरे-धीरे खिल रहा है, प्रकाशमान हो रहा है। फिर उसकी हरे रंग की कर्णिका और पीत वर्ण का पराग देखिए।
८. उस पराग के मध्य में पीले रंग से ‘लँ’ अक्षर बनाइए, और उस अक्षर के मध्य में लाल रंग का त्रिकोण बनाइए। लाल रंग के त्रिकोण की पीठिका पर एक सर्प की धारणा कीजिए। वह सर्प साढ़े तीन मोड़ लेकर शान्ति से बैठा है। आप उसके साढ़े तीन मोड़ पर लोगस्स सूत्र द्वारा २४ तीर्थंकरों का अवधान कीजिए। पहले मोड़ पर १ से ७, दूसरे मोड़ पर ८ से १४, तीसरे मोड़ पर १५ से २१ और २२ से २४ आधे मोड़ पर हैं, इस प्रकार विचार कीजिए।
९. तत्पश्चात् आकाश से श्वेत वर्ण की एक बून्द आपकी ओर आ रही है, ऐसा विचार कीजिए। धीरे-धीरे उस बिन्दु का आकार बढ़ रहा है। समीप आने पर उसके दो भाग हो रहे हैं। और समीप आने पर आप एक बिन्दु में भगवान, और दूसरे में शासन देवी देख रहे हैं। और निकट आने पर आप वहाँ “सुविधिनाथ” भगवान और “सुतारा देवी” को देखते हैं। फिर उस रक्त कमल के पराग में “लँ” अक्षर के मध्य के दोनों स्थानों पर आप उनकी प्रतिष्ठा कर रहे हैं।
१०. अब पुनः आकाश से आपको श्वेत पुंज आता हुआ दिख रहा है, जिसमें से चार वर्ण आते हुए दिख रहे हैं - “वँ” “शँ” “षँ” और “सँ”। इन चारों वर्ण को रक्त पद्म की चार पंखुड़ियों पर रखें। पंखुड़ियाँ स्थिर होने के बाद उनकी वहाँ प्रतिष्ठा करें। फिर उस कमल के दो रेशे उतार कर उनकी प्रतिष्ठा करें, एक का नाम “इल्तला” (प्रभु के दाहिनी ओर) और दूसरे का नाम “कालधमिनी” (प्रभु के बाईं ओर)।
११. फिर प्रभु का लाँछन ‘मकर’ जो अहिंसक है, प्रचण्ड प्रभावी और महा पुण्यशाली है, उसे आता हुआ देखें और उसे कमल में स्थापित “लँ” के नीचे (प्रभु के चरण में) विराजित करके प्रतिष्ठा करें।
१२. फिर उस रक्त चतुर्दल कमल को शान्त चित्त से देखें, फिर उसे ब्रह्म रन्ध्र के पास ले जाएँ।
१३. अब उस रक्त चतुर्दल पद्म को आते देखकर सबसे पहले “सुषुम्ना नाड़ी” खोलें, उस कमल को अन्दर ले जाकर पूरी नाड़ी में फिराएँ। फिर उसे ब्रह्म रन्ध्र के पास लाकर “वज्र नाड़ी” खोलें, उस कमल को उसमें ले जाकर पूरी नाड़ी में फिराएँ। फिर उसे पुनः ब्रह्म रन्ध्र के पास लाकर “चित्रिणी नाड़ी” खोलें, उस कमल को उस नाड़ी में ले जाकर पूरी नाड़ी में फिराएँ। फिर उसे ब्रह्म रन्ध्र के पास लाकर “ब्रह्म नाड़ी” खोलें, उस कमल को उसमें ले जाकर पूरी नाड़ी में फिराएँ। फिर उसे मूलाधार चक्र के पास लाकर वहाँ स्थिर करें, और फिर प्रतिष्ठित करें।
यह मूलाधार चक्र अत्यन्त प्रभावशाली है। यह मेरुरज्जू के नीचे के भाग पर स्थित चतुष्कोणीय रक्त वर्ण का चक्र है। यह वटवृक्ष से प्रभावित है। इस चक्र में पहुँचने और कमल स्थिर करने में “ण” इसकी चाबी रूपी मन्त्र है। डाकिनी देवी और सुतारा देवी से अधिष्ठित और मकर लाँछन युक्त श्री सुविधिनाथ भगवान इस चक्र के सम्राट हैं। हम प्रभु के लिए एक थाल भरकर जासवन्ती के फूल लेकर खड़े हैं, और प्रभु को चढ़ा रहे हैं। यह मूलाधार चक्र ऐसे महा प्रभावशाली प्रभु से परम पवित्र एवं पृथ्वी तत्त्व से प्रभावित है।
जैसे यह पृथ्वी समता, सहनशीलता, धीरज इत्यादि गुणों से भरी है, लेकिन जब उसकी यह समता, सहनशीलता और धैर्य जवाब दे जाए, तो भूकम्प आदि विनाश हो सकता है; ठीक उसी प्रकार इस चक्र को भी नियन्त्रण में रखना आवश्यक है। और यदि यह चक्र सम्यक् रूप से प्रभावी हो, तो विपुल लौकिक सामग्रियों का संयोग होने पर भी साधक उन्हें छोड़कर वैरागी बनता है। वाक्पटुता, श्रेष्ठ वक्ता, विनोदी, आनन्दित, आरोग्यवान एवं पुण्यानुबँधी पुण्य का स्वामी बनता है, जिससे उसे मोक्ष प्राप्ति में मदद मिलती है। उसे कल्याण मित्र मिलते हैं, सर्व लोकमान्य, लोकप्रिय, सबका विश्वासपात्र, किसी से सम्बन्ध खराब न करने वाला, बेजोड़ आत्मविश्वासी, स्फूर्तिशील, सन्तोषी, अपनी, परिवार की, संघ की, देश की और सर्व जीवों की रक्षा करने में सक्षम बनता है। स्वयं को या अन्य को मारने का विचार न करने वाला, स्वाधीन और स्वाभिमानी बनता है, स्वस्थ - किडनी, मेरुदण्ड, शारीरिक सूजन, पैर-कमर आदि के दर्द को नियन्त्रित करने वाला और साधना द्वारा चैतन्य बनकर स्फूर्तिशील बनता है। ये सब गुण मूलाधार चक्र के कारण उसे प्राप्त होते हैं।
उपरान्त इस चक्र के नियन्त्रण से यदि अनित्य लोक भावना का सतत अभ्यास किया जाए तो संसार की वृद्धि नहीं होती। और यदि मिथ्यात्व हो या अनियन्त्रित मूलाधार हो तो पापानुबँधी पाप रूपी सम्पत्ति, असन्तोषी, सुस्त, मानसिक निराश, शारीरिक बीमार, कुसंग, पराधीन, लोक में निन्दनीय, रागी, द्वेषी, रौद्रध्यानी बनता है, फलतः संसार बढ़ाता है। इसलिए इस चक्र को नियन्त्रित रखना आवश्यक है।
फिर इस चक्र को निहारते हुए इस चक्र के मूल मन्त्र “ॐ नमः सिद्धम्” का जाप करते हुए चेतना को सभी नाड़ियों से बाहर निकालें। फिर ब्रह्म नाड़ी, चित्रिणी नाड़ी, वज्र नाड़ी और सुषुम्ना नाड़ी को बन्द करते हुए अशोक वृक्ष के नीचे आकर शान्त चित्त होकर सरोवर का अवलोकन करें। फिर “ॐ शान्ति” तीन बार बोलकर दोनों हाथ मसलकर आँखों पर लगाएँ और पूरे शरीर पर हाथ फेरते हुए धीरे-धीरे ऑंखें खोलें।
Courtesy: faithbook.in