साध्वी तरंगवती
आचार्य पादलिप्तसूरि द्वारा रचित तरंगवति की कथा में प्रेम और पूर्वजन्म की रोमांचक घटना का गुम्फन प्राप्त होता है , तो दूसरी ओर उसके सौंदर्य एवं साधुता की रोमांचक कथा प्राप्त होती है।
राजा कुणिक के राज्य में साध्वी तरंगवती गोचरी लेने गयी थी। धनाढ्य श्रेष्ठी की पत्नी को साध्वी का अनुपम सौंदर्य देखकर सहज ही जिज्ञासा की भावना जागी कि इस अत्यंत रुपवती नारी ने किसलिए संसारत्याग किया होगा ? उसे ऐसा कौनसा हृदयविदारक अनुभव हुआ होगा कि जिसके कारण ऐसा अनुपम सौंदर्य होते हुए भी वैराग्य का मार्ग अपनाया होगा ? धनाढ्य सेठ की पत्नी ने इसका रहस्य जानने के लिए बार-बार प्रश्नावली के रुप में विनती करने से अंत में साध्वी तरंगवती ने अपने अतीतकालीन जीवनवृतांत का रहस्य उजागर किया।
तरंगवती एक समय युवावस्था में अपनी सहेलियों के साथ वनविहार कर रही थी। उसी समय एक चक्रवाक पक्षी को देखा। इस चक्रवाक को देखते ही तरंगवती को अपने पूर्वजन्म का स्मरण हुआ। इस आत्मस्मरण ने उसके पूर्ववृतांत को मानसपट पर तादृश्य कर दिया।
पूर्वजन्म में तरंगवती चक्रवाक के साथ चक्रवाकी के रुप में गंगा नदी के तीर पर सुखशांति से रहती थी। यहाँ दोनों आनंदविभोर होकर प्रेमक्रीड़ा करते थे। परंतु एक समय अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण घटना हुई। गंगा के तट पर आनंद से खेल रहा चक्रवाक शिकारी के हाथों बींध गया। चक्रवाक को मरा हुआ देखकर चक्रवाकी विरह-वेदना से तड़पने लगी। चक्रवाक पर उसे अत्यधिक प्रेम था। यह प्रेमी जोड़ी खंडित हुई, पर चक्रवाक के विरह में डूबी हुई चक्रवाकी के लिए यह वियोग असहृय था, अतः उसने भी प्राणत्याग किया।
तरंगवती को अपने इस पूर्वजन्म के स्मरण के साथ एक प्रश्न जाग उठा कि अपना गत जन्म का ऐसा प्रेमी कहाँ होगा ? उसकी खोज-खबर के लिए तरंगवती बहुत ही आतुर हो उठी। उसने सोचा कि यदि अपनी तरह अपने प्रियतम को पूर्वजन्म की घटना का संकेत प्राप्त हो तो कदाचित पुनर्मिलन हो। तरंगवती ने अपने पूर्वजन्म के समस्त वृतांत का चित्र बनाकर कौमुदी महोत्सव के अवसर पर कौशाम्बी नगरी के चौराहे पर रखा।
यह चित्रपट देखकर श्रेष्ठीपुत्र पद्मदेव को अपने पूर्वजन्म का स्मरण हुआ। फलतः एक भव या जन्म में बिछुड़े हुए दो प्रियजनों का दूसरें भव में पुनर्मिलन हुआ, परंतु पुनः उनके जीवन में नया संकट उपस्थित हुआ। श्रेष्ठीपुत्र पद्मदेव की आर्थिक दशा सामान्य होने से तरंगवती के पिता ने इस युवक के साथ उसका विवाह करने की बात का स्पष्ट इन्कार किया, पर तरंगवती एवं पद्मदेव के घनिष्ठ प्रेम को कौन रोक सके ? एक रात्रि को नैया में बैठकर दोनों भाग निकलें। विभिन्न स्थानों पर घूमते रहे। आज यहाँ, तो कल वहाँ -इस प्रकार रोज स्थान बदलते रहे। ऐसे में एक बार चोरों की टोली ने उन दोनों को पकड़ लिया और उन्होंने कात्यायनी देवी को इन दोनों की बलि चढ़ाना निश्चित किया। यह सुनकर तरंगवती हिचकी भर-भर कर रोने लगी। उसका ऐसा करुण रुदन देखकर चोरों के सरदार का हृदय पिघला। उसने इन दोनों बंदियों को मुक्त किया। फिर से दोनों का घूमना-भटकना शुरु हो गया। वर्षो के बाद दोनों पुनः कौशांबी नगरी में आये। पुत्री की घटित संकटमय कथा सुनकर और उसके सच्चे प्रेम को जानकर तरंगवती के पिता ने धूमधाम से दोनों का विवाह कर दिया।
कर्म की गति कितनी अगम्य और न्यारी है! तरंगवती और पद्मदेव का विवाह होने पर संसार का एक अध्याय पूरा हुआ। उनके प्रेम को पूर्णता प्राप्त हुई, परंतु जीवन में पूर्णता लाना अभी बाकी था। एक संध्या को गंगा के किनारे एक मुनिराज से सहयोग हुआ। मुनिराज ही पूर्वजन्म में चक्रवाकी को बींधनेवाला शिकारी था। उन्होंने चक्रवाक के पीछे चक्रवाकी का प्राणत्याग देखा था। चक्रवाक की चिता में कूदती हुई चक्रवाकी को देखकर इस शिकारी को अपनी भूल समझ में आई। अपने क्रूर कार्य के लिये अपने आप को धिक्कारने लगा और प्रायश्चित करने लगा। साथ ही इस जन्म में उसने डाकुओं के सरदार के रुप में तरंगवती एवं पद्मदेव को मुक्त करके अपने पूर्वकर्म को सुधार लिया।
जीवन की ऐसी अमाप चंचलता ज्ञात होने के पश्चात् तरंगवती के हृदय में शाश्वत वैराग्य की भावना जाग उठी। उसने संयम का स्वीकार करके जीवन में पूर्णता की प्राप्ति के लिए प्रयत्न शुरु किया। जन्म -जन्मान्तर तक जारी रहती ऋणानुबंध की घटनाओं पर तरंगवती के साध्वी होते ही परदा गिर गया। तरंगवती साध्वी चंदनबाला की शिष्या बन गई और उनके साथ विहार में रहकर धर्म -आराधना करने लगी।