साध्वी याकिनी महत्तरा

  • 06 Aug 2020
  • Posted By : Jainism Courses

साध्वी याकिनी महत्तरा

 

क्षमा सर्व गुणों की खान है । क्षमा उदार हृदय के प्रबल शौर्य की चाहत होने से, क्षमा वीरस्य भूषणम कहलाती है । ऐसी क्षमा जैन दर्शन में दुर्गति का हरण करने वाली, रत्नत्रयी प्राप्त करनेवाली, जन्म-मरण स्वरुप संसारसागर को पार करनेवाली और तीनों लोक में सार रुप कहलाती है । ऐसी उत्तम क्षमा को जागृत करने का कार्य याकिनी महत्तरा ने किया था ।

 

आचार्य हरिभद्रसूरिजी के हंस और परमहंस नामक दो शिष्यों की अन्य धर्मियों के हाथों हत्या की गई । इससे आचार्यश्री का हृदय खलबला उठा । अपने प्रिय शिष्यों की क्रूर हत्या का आघात उनके मन में बदले की आग जगा गया । आचार्यश्री ने बौद्ध विहार में अभ्यास करते 1444 शिक्षार्थी एवं अध्यापकों को उबलते तेल की कड़ाही में जिंदा भून डालने का विचार किया । क्रोध विवेक को भगा देता है । आचार्यश्री के क्रोध का बीज वैर का वटवृक्ष बन गया । वैर का बदला लेने के लिए आचार्यश्री ने उपाश्रय के द्वार बंद किये । बड़ी भट्टी सुलगाई । उस पर रखी कढ़ाई में तेल डाला और फिर अपने मंत्रबल से उन अध्यापकों एवं विद्यार्थियों को आकर्षित करके आकाश में खड़े रखा । क्रोधायमान आचार्यश्री की इच्छा तो एक के बाद एक विद्यार्थी तथा अध्यापक को मंत्रशक्ति से बुलाकर जीवित ही उबलते तेल की कढ़ाई में डालने की थी ।

आचार्यश्री के वैर की बात की जानकारी याकिनी महत्तरा को हुई । एक आचार्य के हाथों ऐसा नृशंस हत्याकांड ! याकिनी महत्तरा उतावली से चलकर उपाश्रय में आई । उपाश्रय के द्वार बंध थे । आचार्य हरिभद्रसूरि ने अपनी माता समान याकिनी महत्तरा से कहा , " तत्काल मेरी क्रिया चल रही है । कुछ समय के बाद आना । "

 

याकिनी महत्तरा ने दृढ़ आवाज से कहा, "मुझे तुमसे जरुरी काम है ! तत्काल द्वार खोलो ।"

 

द्वार खुला । याकिनी महत्तरा ने विनयपूर्वक आचार्यश्री को वंदन किया और फिर कहा, " आचार्यश्री ! आपके पास प्रायश्चित लेने आई हूँ । मुझे आप प्रायश्चित दीजिए ।"

 

प्रकांड विद्वान आचार्य हरिभद्रसूरि याकिनी महत्तरा के पुत्र के रुप में पहचाने जाते थे, क्योंकि उसी याकिनी महत्तरा का एक श्लोक वे समझ नहीं पाये थे और उनका विद्वता का अहंकार खंडित हो गया था । अंत में विद्वता में पराजित होने पर राजपुरोहित विद्वान हरिभद्र ने जिनदत्तसूरिजी से दीक्षा ली । स्वयं को योग्य मार्ग बतानेवाली याकिनी को आचार्य हरिभद्रसूरि माता मानते थे । ऐसी माता समान साध्वी सामने आकर किस बात का प्रायश्चित लेने आई है यह जानने की श्री हरिभद्रसूरि की जिज्ञासा जाग उठी ।

 

याकिनी महत्तरा ने कहा कि अनजानें में चलते-चलते मेरे पाँव से एक मेढ़क दब गया । एक पंचेन्द्रिय जीव की हिंसा से मेरी आत्मा अपार वेदना का अनुभव कर रही है । इसलिए में इस हिंसा का प्रायश्चित करना चाहती हूँ, कारण कि यदि आलोयणा ( दोषों का स्वीकार करके प्रायश्चित लेना ) किये बिना मेरी आयु पूरी हो जाय, तब यह पाप मुझे लग जायेगा ।

 

आचार्य हरिभद्रसूरि ने कुछ ऊँची आवाज में कहा , " ओह ! आप पंचेन्द्रिय जीव का ध्यान नही रख पायी ? आपको प्रायश्चित करना ही होगा । "

 

याकिनी महत्तरा ने प्रायश्चित का सविनय स्वीकार करके कहा, " मुझसे अनजाने में हुए एक तिर्यच ( मनुष्य से निम्न जाति के प्राणी ) पंचेन्द्रिय जीव ( मेढ़क ) की हिंसा का प्रायश्चित तो मिला , परंतु तुम 1444 मनुष्यों की जान -बूझकर हिंसा कर रहे हो इसका प्रायश्चित क्या होगा ? "

 

याकिनी महत्तरा के ये शब्द सुनते ही आचार्यश्री हरिभद्र का क्रोध शांत हो गया । जिन अध्यापकों एवं विद्यार्थियों को मंत्रबल से बुलाया था, उन्हें वापस भेज दिया ।

अपने दुष्कृत्य करने के विचार के प्रायश्चित रुप क्षमा आदि गुणों को प्रकट करें ऐसे 1444 ग्रंथों की रचना की । क्रोध क्षमा में परिवर्तित हो गया । वैर-भावना विद्या में पलट गई । साभार जिनशासन की कीर्तिगाथा ।