साध्वी मनोरमा
राजकुमारी मनोरमा ने यौवन की देहली पर पाँव रखा और उसका मन-मयूर नाच उठा । राजवैभव में पली-बड़ी इस राजकुमारी को जीवन के सभी भौतिक आनंद -प्रमोद प्राप्त हुए थे । राजकुमारी के रुप में लाड़-दुलार से उसका लालन-पालन हुआ था । अत्यंत स्वरुपवती मनोरमा ने मन-ही-मन विचार किया कि समस्त नगरी में मेरे जैसी समृद्ध -सुखी तथा स्वरुपवती अन्य कोई युवती नहीं हैं । श्रेष्ठ का श्रेष्ठ से ही मिलाप शोभनीय है । फलतः उसने निश्चय किया कि इस जगत में सबसे रसिक पुरुष हो , उसी के साथ मैं विवाह करुँगी ।
ऐसी मदमाती-मस्तानी युवती में रसिकता न हो तो फिर जवानी का मतलब ही क्या? कुछ राजकुमार मनोरमा से विवाह करने के लिए आतुर थे, परंतु मनोरमा को इन राजकुमारों में राजवैभव की जाज्वल्यमानता नजर आती थी, किन्तु बूँद मात्र भी रसिकता दृष्टिगोचर नहीं होती थी । इसलिए राजकुमारों के विवाह के प्रस्तावों का वह स्वीकार नहीं करती थी ।
एक समय पालकी में बैठकर राजकुमारी मनोरमा राजमार्ग से गुजर रही थी । इस समय उसने किसी पुरुष की मस्त मधुर आवाज सुनी । यह सुनते ही मनोरमा के मन का मयूर डोलने लगा । इस वर्णन में पुरुष के मुख से श्रृंगार-भाव की एक-से-एक बेहतरीन लहरें उछल रहीं थी । उनमें लबालब छलकते हुए प्रणय-बसंत का मनोरम वर्णन था । समग्र सृष्टि मानों श्रृंगाररस में स्नान कर रही हो ऐसा मनोरमा ने अनुभव किया । रसिक पुरुष की गुलालरंगी कल्पनाओं ने मनोरमा के चित्त में मोह के आवेग को जगाया ।
उसका मन उस आवाज के उद्गमस्थान की ओर दौड़ने लगा । हृदय में रोमांच, अंतर में आतुरता और आँखों में दर्शन की तड़पन थी । श्रृंगाररस की एक-से-एक बढ़िया लहरें उछालनेवाले ऐसे रसिक पुरुष को कब मिलूँ और उसकी जीवनसंगिनी बन जाऊँ ! ऐसा रसिक पुरुष प्राप्त हो तो सुभाग्य के सारे द्वार खुल जायँ । पालकी के साथ-साथ चलते सैनिकों से मनोरमा ने कहा, " जाओ , जल्दी जाओ , मेरे पिताजी से कहो कि मैने माना हुआ प्रियतम मुझे मिल गया है । उसकी रसिकता इतनी अधिक है कि अब जीवन मौज-मस्ती से तरबतर हो उठेगा । "
मधुर स्वर का मूल स्थान खोजती हुई मनोरमा जैन-उपाश्रय में आ पहुँची । इस समय उपाश्रय में तेजस्वी आचार्य अभयदेवसूरिजी पाट पर बैठकर अपने शिष्यों को पाठ पढ़ा रहे थे । अन्य शिष्य मंत्रमुग्ध होकर गुरुवाणी सुन रहे थे । श्रृंगार के वातावरण का अनुभव कर रहे थे । राजकुमारी मनोरमा तो कविता के रस में पागल बनी हुई थी । उत्साह में बौराई हुई राजकुमारी ने कुछ भी इधर-उधर देखे बिना अपनी धुन ही धुन में आचार्य महाराज से कहा, " हे राजकुमार ! मुझे स्वीकार कीजिए । आपका रस और मेरा राग दोनों का मिलन होते ही संसार पर स्वर्ग उतर आयेगा । "
आचार्य श्री अभयदेवसूरीश्वरजी ने मनोरमा की प्रणयव्याकुल उन्मत दशा को परख लिया । उन्होंने वात्सल्यसभर आवाज में मनोरमा से कहा, " हे राजकुमारी ! जिस गीत के आकर्षण से खिंचकर तू यहाँ तक चली आयी है, वह गीत अभी तो अपूर्ण है । पूर्ण गीत सुनेगी तभी तुझे उसके पूरे भाव का अनुभव होगा । तत्पश्चात् तुझे उचित लगे वैसा करना । "
आचार्यश्री ने पहले जिस प्रकार श्रृंगार का प्रपात बहाया था, वैसे ही बहानें लगे और श्रृंगाररस में परिवर्तन करके धीरे धीरे शांत रस अभिव्यक्त करने लगे । प्रेम-राग के वातावरण में से समता का भावविश्व खड़ा हुआ !
गीत में से राग से विराग का भाव जागने लगा । बहुमूल्य आभूषण एवं कीमती वस्त्र धारण करनेवाली देवियाँ दिव्यवंदन करने के लिए वीतराग प्रभु के पास जा रही थीं , उसका आचार्यश्री ने तादृश वर्णन किया । उसके बाद आचार्यश्री ने वीतराग प्रभु के वैराग्य का वर्णन किया । आसक्ति की तुलना में आराधना की महत्ता गाई , देहश्रृंगार की क्षणिकता के समक्ष आत्मश्रृंगार की अमरता दर्शाई । भौतिक संपत्ति के बदले त्याग की महिमा प्रकट की । यह सुनकर मनोरमा के मनोभावों का परिवर्तन हुआ । अनुराग में से वैराग्य जागा और उसने साध्वी धर्म स्वीकारा ।
साभार: जिनशासन की कीर्तिगाथा