साध्वी पाहिणीमाता
महान पुत्र को जन्म देनेवाली महान माता यानी साध्वी पाहिणी । धंधुका के मोढ़ ( वणिक ) ज्ञाति के सेठ चाचिंग की पत्नी पाहिणी प्रसिद्ध श्रेष्ठी नेमिनाग की बहन थी । एक समय रात को पाहिणी ने स्वप्न में चिंतामणि रत्न देखा । दो हाथ में रहा हुआ वह दिव्य रत्न पाहिणी को ग्रहण करने को कोई कहता था । स्वप्न में पाहिणी ने वह रत्न ग्रहण किया और वह रत्न पाहिणी ने गुरु को अर्पण किया । स्वप्न में आँखों में हर्ष के आँसू उमड़ पड़े और तभी उसकी आँख खुल गई।
पाहिणी ने सोचा कि गुरुदेव देवचंद्रसूरिजी इस नगर में ही है , तो स्वप्न के फल के बारे में उनसे पूछ आऊँ । आचार्य देवचंद्रसूरि ने कहा, " तू एक नररत्न को जन्म देगी, जो बड़ा होकर गुरुरत्न बनेगा । महान आचार्य बनकर जिनशासन को सुशोभित करेगा । " इन गुरुवचनों से पाहिणी के आनंद की कोई सीमा न रही । पाहिणी को गुरु के प्रति अपार श्रद्धा थी । अपना पुत्र जीवन की परमोच्च सिद्धि पाये ऐसी अभिलाषा माता को होती ही है । साधुता को जीवन का सर्वोच्च शिखर माननेवाली पाहिणी आनंदविभोर हो उठी । अपना पुत्र महान आचार्य बनेगा इस भविष्यकथन ने उसके हृदय को आनंदसिक्त कर दिया ।
विक्रम संवत् 1145 की कार्तिक सुद पूनम की रात को उसने एक तेजस्वी बालक को जन्म दिया । माता-पिता ने उसका नाम चंगदेव ( चंग अर्थात उत्तम ) रखा । छोटा चंगदेव एक बार आचार्यश्री की पाट पर बैठ जाता है । अंत में चंगदेव को मातापिता दीक्षा की अनुमति देते है । उसका नाम मुनि सोमचंद्र रखा जाता है और कुछ काल बीतने के पश्चात् उस विद्वान मुनि को विक्रम संवत् 1166 की वैशाख वद तीज के दिन मध्यान्ह के समय आचार्यपद देकर उनका नाम हेमचंद्रमुनि रखा । इस अवसर पर उनकी माता पाहिणीदेवी उपस्थित थी । उनके हृदय में ऐसा उल्लास जागृत हुआ कि पुत्र की आचार्यपदवी के साथ माता ने भी संयममार्ग अपनाया । माता पाहिणी साध्वी पाहिणी हो गई और उन्हें प्रवर्तिनी का पद अर्पण किया गया ।
साध्वी पाहिणी तप तथा त्याग में लीन हो गई । आचार्यश्री हेमचंद्राचार्य विहार करते हुए पाटण में पधारे थे । यहाँ पूज्य प्रवर्तिनी पाहिणी ने अनशन शुरु किये थे । अनेक भावुक उनके दर्शन के लिए आ रहे थे । उनकी भावना का अभिनंदन करते थे । अपने छोटी आयु के पुत्र को जिनशासन को समर्पित करनेवाली साध्वी पाहिणी को अंतःकरण से प्रणाम करते थे ।
ज्ञान के भंडार समान कलिकालसर्वज्ञ हेमचंद्राचार्य ने अनेकविध विषयों पर ग्रंथ लिखे । गुर्जरनरेश जयसिंह सिद्धराज और कुमारपाल जैसे शासकों को उचित मार्गदर्शन दिया । जिनशासन की कीर्तिगाथा को सुवर्णशिखर पर पहुँचाया । आचार्यश्री हेमचंद्राचार्य का प्रभाव सामान्य से सामान्य मनुष्य से लेकर राजाधिराज तक फैला हुआ था । उनके जीवन में स्वधर्मवत्सलता और परमत-सहिष्णुता दृष्टिगत होती है । पंचव्रतों को जीवन में धारण करनेवाले इन आचार्य की जीतेन्द्रियता भी उदाहरण -स्वरुप थी । उनके हृदय में करुणा एवं अनुकंपा का स्तोत्र निरंतर बहता था । ऐसी महान विभूती को जन्म देने वाली माता भी पुत्र की राह पर चली थी ।
साध्वी पाहिणी अपने ज्ञानध्यान में सदैव लीन रहती थी । उनके अंतर में अपने पुत्र हेमचंद्रसूरि का अपूर्व ज्ञान देखकर आनंद प्रवर्तित होता था । उनकी विशिष्ठ योग सिद्धि और महान शासनप्रभावक देखकर साध्वी पाहिणी अति प्रसन्न थी । श्री हेमचंद्राचार्य भी माता साध्वी पाहिणी की हृदयपूर्वक देखभाल करते थे । माता के प्रति उनके अंतर में असीम भक्तिभाव था । साध्वी पाहिणी जी बीमार पड़ी थी । आसपास का साध्वीवृंद उन्हें अंतिम आराधना करवा रहा था । बीमार साध्वी माता के पास कलिकालसर्वज्ञ हेमचंद्राचार्य अपने शिष्यों के साथ दर्शनार्थ आये । प्रवर्तिनी पाहिणी कालधर्म को प्राप्त हुई , तब श्रावकों ने पुण्य में तीन करोड़ खर्च किये । वीतराग धर्म के आचार्य अपनी तेजस्वी एवं धर्मनिष्ठ माता को भला क्या दे सकें ? उन्होंने तीन लाख श्लोकों का पुण्य माता को दिया । इतिहास में कलिकालसर्वज्ञ हेमचंद्राचार्य की प्रकांड विद्वता और धर्भप्रभावकता को याद किया जाता है, तो उसके साथ-साथ उनकी माता प्रवर्तिनी पाहिणी की उच्च भावना तथा उत्कट धर्मपरायणता को भी याद किया जाता है ।
साभार: जिनशासन की कीर्तिगाथा