साध्वी सुनंदा ( रुपसेन )
जैनदर्शन ने कर्मवाद पर अति गहन विचार किया है । जगत में जो कुछ होता है वह सब कर्माधीन है । इसके अतिरिक्त कर्म को भुगते बिना छुटकारा भी नहीं है । ऐसी कर्म की गति सुनंदा एवं रुपसेन के जीवन में प्रकट होती है । साध्वी हुई सुनंदा वैराग के रंग में रँग गई थी । तप के कारण अवधिज्ञान प्राप्त करके संयम का पालन करती थी । अपनी पूर्वावस्था को जानती सुनंदा ने एक बार गुरुआनी से कहा, " मेरे कारण अत्यन्त दुःख भोग रहे और जन्म-मरण के चक्र में फँसे हुए रुपसेन के मोहप्राप्त जीव को बोध देना चाहती हूँ । आप आज्ञा दें तो मैं विद्याद्वीप जाऊँ, जहाँ हाथी के रुप में जन्मे हुए रुपसेन का मैं उद्धार कर सकूँ । "
पूजनीया गुरुआनी ने साध्वी सुनंदा के शब्दों को सुनकर कहा, " तुम आनन्द से जाओ । यदि किसी जीव का उद्धार होता हो, तो मैं उसके मार्ग में अवरोधरुप क्यों बनूँ ? "
इस प्रकार अपनी गुरुआनी की आज्ञा लेकर सुनंदा साध्वी अन्य चार साध्वियों के साथ सुग्राम में आयी और वहाँ चातुर्मास रही ।
साध्वी सुनंदा ने जाना कि रुपसेन का जीव हाथीरुप में जन्मा है और वह नगर के लोगों के लिए भय का अवतार बन गया है । उसकी चपेट में जो कोई आता उसे वह पाँव तले क्रूरता से कुचल डालता था । उसे देखते ही लोग प्राण हथेली में लेकर भागते थे । उसके त्रास के कारण गाँव की रहावन या सीमा में जाते हुए लोग भी डर के मारे फड़फड़ाते थे ।
साध्वी सुनंदा हाथी को प्रतिबोध देने के लिए निर्भयता से निकट गयी । नगरजनों ने उन्हें मृत्यु को असामयिक आमंत्रण न देने के लिए बहुत कुछ समझाया, परन्तु साध्वी सुनंदा निड़रता से आगे बढ़ी । इतने में चिंघाड़ता हुआ हाथी दौड़ते हुए आया, परंतु साध्वीजी की आँखों से आँखें मिलते ही पूर्वकालीन रागदशा के कारण हाथी शान्त होकर स्थिर बन गया ।
साध्वी सुनंदा ने कहा, " कब तक मोहवश होकर दुःखी होना है ? मेरे ऊपर के मोह के कारण कितने सारे दुःख सहता है ? मोहपाश में बँधकर तूने अनुराग एवं आशक्ति में छः छः भव गँवायें और यह सातवाँ भव नष्ट करने के लिए तत्पर हुआ है । समझ, कुछ तो समझ । "
साध्वी सुनंदा ने हाथी को उसके पूर्वभवों या पूर्वजन्मों की बातें कहीं । उन्होनें कहा, " रुपसेन ! जब तू मानवअवतार में था, तब मेरे प्रति मोह में होश गँवाया और उस अवतार में मुझे प्राप्त न कर सका, बल्कि दीवार के नीचे दबकर असामयिक मृत्यु की शरण हुआ । तेरे सुनहरी सपने मन में ही धरे के धरे रह गये । पूर्वभव के मोह के कारण तू मेरे गर्भ में आया, तब मेरे कुमारिका होने से युक्ति-प्रयुक्ति द्वारा उस गर्भ को नष्ट किया गया । तत्पश्चात् तेरे जीव या प्राण ने क्षितिप्रतिष्ठित नगर के राजा पृथ्वीवल्लभ के उद्यान में रहती साँपिन के पेट से जन्म लिया । उस समय भी तू साँपिन के रुप में राजा पृथ्वीवल्लभ की मै रानी बनी हुई थी , फिर भी मेरे पीछे लगा । तब मेरे पति पृथ्वीवल्लभ के साथ मैं संगीत की महफिल का आनंद उठा रही थी, तब ' का...का... ' आवाज से विक्षेप पड़ने से राजा ने तूझे उड़ाने का प्रयास किया , किन्तु मेरे प्रति मोहपाश में बँधें हुए तेरे प्राण वहाँ से तनिक भी खिसकते न थे , अतः राजा ने तुझे मार डाला । उसके बाद पाँचवे भव में तेरा जीव हंस बना । राजा पृथ्वीवल्लभ के साथ मै घटादार वृक्ष की छाया में बैठी थी , तब मेरे पास बैठकर आनंद का अनुभव करता हुआ तू हंसरुप में मधुर गान करता था । ऐसे मे एक कौआ विष्टा करके उड़ गया । तू हंसरुप में मोहवश मुझे एकटक देखता रहा । राजा के वस्त्र पर कौए की विष्टा गिरने से राजा क्रोधित हो उठा और हंस को मार डाला । उसके बाद छट्ठे अवतार में तू हिरन बना । उस हिरन को मारकर राजा पृथ्वीवल्लभ के साथ मै भोजन करती थी, तभी एक चार ज्ञान के धारक मुनि ने मुझे मेरे ओर तुम्हारें पूर्वभवों की बात कहीं । कर्म की ऐसी गति और मोहदशा के परिणाम को जानने के पश्चात् मेरे अपने पापों की मुक्ति के लिए यह चारित्र्य ग्रहण किया । "
सुनंदा साध्वी से अपने छः पूर्वभवों की बात सुनकर वह हाथी शांत हो गया तिर्यच (पशु) भव में भी उसने उत्तम धर्म स्वीकारा । वह तप करता हुआ समाधियुक्त मर गया और आठवें देवलोक का देव बना । समय गुजरने के बाद वह सिद्धिपद प्राप्त हुआ इसी तरह सुनंदा साध्वी भी कर्म पूर्ण करके, केवलज्ञान प्राप्त कर अक्षयपद प्राप्त हुई ।
साभार: जिनशासन की कीर्तिगाथा