मुझे किसी को बाधारूप नहीं होना है।
- पू. आचार्य श्री जिनसुन्दरसूरि जी म. सा.
' जोगीवाड़े जागतो ने मातो धींगड़मल्ल ' स्तवन की पंक्ति जिसके लिए गाई जाती है उन पार्श्वनाथदादा की बैठक है ऐसा पाटण नगर जहाँ जीवदया प्रतिपालक, १८ देश के अधिपति कुमारपाल महाराजा का शासन था उस अणहिलपुर पाटण की यह कथा है।
एक धर्मनिष्ठ परिवार, घर-परिवार की जिम्मेदारी सम्हाल रहे विशेष श्रावक, अवस्था ४० वर्ष, घर-परिवार में अपने माता-पिता, धर्मपत्नी, दो बेटे और एक बेटी, सभी सुसंस्कारी थे।
धर्मपत्नी की सहमति के साथ इस श्रावक ने युवावस्था में आजीवन चतुर्थ व्रत अपना लिया था। संयम के प्रति अपार भाव था। ' कब बनूंगा मैं सच्चा संत रे ' का स्मरण निरंतर चलता रहता था। संयम अति प्रिय था पर बेटे-बेटियों की जिम्मेदारी में उलझे हुए थे। अत: बेटे-बेटी को संयम की दिशा में मोड़ने और भाव जगाने के प्रयास करने लगे।
संतानों में यह भाव जागृत हो जाये तो समस्त परिवार के साथ निकल पड़ने की उत्कट भावना थी। दो बेटे धर्म के रंग से रंगे हुए थे पर उनमें दीक्षा का भाव जागृत नही हुआ। उन दोनों का विवाह करा दिया गया और बिटिया में संयम के भाव जागने के कारण उसे संयम की राह पर अग्रसर किया।
अब जिम्मेदारी पूर्ण होने पर माता-पिता के समक्ष प्रस्ताव रखा। अपने भाई संभाल सके ऐसे हैं परन्तु माता-पिता को किसी और पर भरोसा नही ज़मने के कारण आज्ञा देने की तत्परता नहीं दिखाई। वे ज्यादा जोर डालने पर सिसक-सिसककर रो उठते थे। इससे पुन: बाधा तो बनी ही रहती थी। वक्त बीतते माता-पिता का भी परलोक गमन हो गया। अब राहें आसन हो गईं। धर्मपत्नी तो चाहती ही थीं।
पुन: बाधा रूकावट बनकर खड़ी हो गई। अब स्वास्थ्य सहयोग नहीं कर रहा था। बार-बार बिमारियां लगी रहती थी। गुरुदेव ने ऐसी शारीरिक स्थिति में दीक्षा दान करने से इनकार किया।
पुन: हृदय मंथन शुरू हुआ। दीक्षा नहीं मिलने के कारण हृदय अति व्यथित था ।
धर्मपत्नी से कहा " मेरा कोई भयंकर पापोदय है पर मैं क्यों बाधा रूप बनूँ? तुम ख़ुशी-ख़ुशी संयम का स्वीकार कर लो, मेरे हाथों इतना तो सुकृत होगा ना! " समाज इत्यादि की बातों की उपेक्षा करते हुए धर्मपत्नी को बड़े ठाट बाट के साथ दीक्षा प्रदान करवाई।
' यदि मेरी बीमारी अनियंत्रित हो गई और शारीरिक रूप से विवश हो गया तो पत्नी ही मेरी सही मायने में सहायक होगी। पुत्र और पुत्रवधू का भरोसा करना असंभव है। ' ऐसी स्थिति से अवगत होते हुए भी ' प्रतिकूलतायें आएँगी तो सह लूंगा पर मुझे किसी की राह में रूकावट नहीं होना है। ' ऐसी उत्कट भावना ने धर्मपत्नी को दीक्षा दान करवाया।
दीक्षा दिलाई जाने के तीन वर्ष के अनंतर भयानक रोग ने उन्हें आ घेरा। कई बार अस्पताल में भर्ती कराया गया। बेहोश हुए, तत्पश्चात होश में आये। अति गंभीर स्थिति में रहने के बाद पुन: मौत के मुख से बाहर आये, पर जैसे ही होश सम्हालते उनके मुख से ' नमो अरिहंताणं ' का नाद होता था।
डॉक्टर भी आश्चर्य का अनुभव कर रहे थे कि ' ऐसी सहिष्णुतावाले भी महापुरुष हो सकते हैं!!! '
मृत्युवेला सन्निकट थी। जिद करके घर वापस लौट आये। इतनी सारी वेदनाओं के रहते भी अभी भी संयम ग्रहण करने के भाव अड़िग हैं। पुत्री महाराज साहब पास में ही होने के कारण वहां पहुँच गईं। “ मुझे रजोहरण दीजिये। मुझे साधुवेश पहनाइए। मुझे संयम लेना है। ” इस प्रकार बारबार आँखों में अश्रु सहित संयम ग्रहण की छटपटी के साथ बोले जा रहे थे।
गीतार्थ गुरुभगवंत की आज्ञा लेकर बगल में रजोहरण रखा। उन्हें श्वेत वस्त्र परिधान पहनाए गये। अब उन्हें लगा कि ' मैं साधु हूँ। ' और साधुत्व के भावों में रजोहरण के दर्शन करते हुए संयम की तीव्र उत्कंठा के साथ यह संयमशील श्रावक पंडित अनंत की यात्रा पर सिधार गए।
' आठ वर्ष की अवस्था में उछाह हृदय के साथ सीमंधरदादा से उन्हें राजोहरण प्राप्त न हो तो ही आश्चर्य। ' ऐसा कहने का मन हो जाये।
धन्य है संयम के माशूक श्रावक को!!!
साधुजीवन के लिए तरसने-तडपने वाला ही सच्चा श्रावक है।