सेनापति आभू

  • 27 Aug 2020
  • Posted By : Jainism Courses

सेनापति आभू

गुजरात की राजधानी अणहिलपुर पाटण पर विशाल मुसलमान सेना चढ़ आई गुजरात के अंतिम सोलंकी राजा भीमदेव ( द्वितीय ) उस समय राज्य में उपस्थित नहीं थे , अतः सब के मन में एक चिंतामय प्रश्न उत्पन्न हुआ कि मुस्लिम आक्रमण से किस प्रकार राज्य का रक्षण किया जा सके ? वैसे तो सेनापति सेना ले जाकर युद्ध करता हैं , परंतु सेनापतिपद पर शीघ्र ही नियुक्ति श्रीमाली जैन राजपूत आभू की हुई थी बिल्कुल अपरिचित नया सेनापति युद्धभूमि पर भला सेना को किस प्रकार मार्गदर्शन दे सके ?

इस तरह तीन प्रकार की चिंताओं से अणहिलपुर पाटण घिर गया प्रथम तो यह कि प्रजा को उत्साह एवं सैन्यशक्ति दे सके ऐसे राजा भीमदेव उपस्थित नहीं थे दूसरी यह कि कोई व्यक्ति ऐसा था कि जिस पर राज्य की सुरक्षा का भरोसा किया जा सके और तीसरी बात यह थी कि विशाल मुसलमान सेना से टक्कर ले सके इतनी पर्याप्त एवं व्यवस्थित सेना भी नहीं थी अतः राज्य के अधिकारी चिंतामग्न हो गये थे

गुजरात की महारानी ने देखा कि अब कोई उपाय नहीं हैं मुसलमान सेना बिल्कुल निकट पहुँची हैं एक-एक पल बहुमूल्य है , अतः तत्क्षण निर्णय लेने की आवश्यकता थी अन्त में उन्होंने सेनापति आभू को बुलवाया और युद्ध की बागडोर सौपी सेनापति आभू ने सैनिको को एकत्रित करके उनमें उत्साह बढ़ाया शत्रु को उलझन में डाल दें ऐसी व्यूहरचना की दूसरें दिन प्रातःकाल युद्धारंभ हुआ सेनापति आभू धर्मिष्ठ श्रावक थे दिन में दो बार सवेरे तथा संध्या समय प्रतिक्रमण करते थे संध्या की लालिमा आकाश के कोने में छा गई प्रतिक्रमण का समय निकट आया सेनापति आभू सोचने लगे किसी एकांत स्थान पर जाकर प्रतिक्रमण कर लूँ , परंतु इस रणभूमि के बीच एकांत स्थान कहाँ मिले ? संहार से सभर समरभूमि में समतलभूमि-सा प्रतिक्रमण भला कैसे हो सके ? यदि सेनापति ही समरभूमि छोड़कर जाये तो फिर संकट की आँधी ही उठ खड़ी हो सेनापति के बिना सेना हतोत्साह हो जाये और पलभर में उसके ललाट पर पराजय लिख दी जाये एक ओर दृढ़ धर्मश्रद्धा थी , दूसरी ओर उसके पालन में कई कठिनाईयाँ थी एक ओर धर्म, दूसरी ओर संकट ! आखिर युद्धभूमि में हाथी के हौदे पर बैठे-बैठे ही प्रतिक्रमण का प्रारंभ किया प्रतिक्रमण में जब " जेमे जीवा विराहिया एगिंदिया बेइंदिया ( एकेन्द्रिय , द्वींद्रिय -जिस किसी जीव की मैंने विराधना - हिंसा - की हो ) " इत्यादि शब्दों का सेनापति आभू उच्चारण करते थे , तभी एक सैनिक ने दूसरें सैनिक से कहा , " अरे ! देखों तो सही ! हमारें सेनापति युद्ध के मैदान में कैसा अहिंसक कृत्य कर रहे हैं ! एक ओर मारो-काटो का हो-हल्ला सुनाई पड़ रहा है आमने-सामने शत्रुओं पर शस्त्र फटकारे जा रहे है ऐसे समय वे " एगिंदिया बेइंदिया " कर रहे हैं यह बेचारा श्रावक युद्ध में कैसे बहादुरी बतायेगा ? "

यह बात महारानी के कानों तक जा पहुँची महारानी के मन में अत्यधिक चिंता जाग उठी , परंतु अब निरुपाय थी दूसरे दिन प्रातःकाल से युद्ध का प्रारंभ हुआ सेनापति आभू ने दुश्मनों पर ऐसा प्रबल आक्रमण किया कि उन्हें शरणागति स्वीकारनी पड़ी पाटण की प्रजा ने सेनापति आभू का जयजयकार किया और महारानी ने सम्मान-सहित उसका स्वागत किया

महारानी ने कहा , " आपको युद्धभूमि में प्रतिक्रमण करते हुए देखकर सैनिकों ने घोर हताशा और मैंने अनहद व्यथा का अनुभव किया था , परंतु आपकी वीरता देखकर आज हम सब आश्चर्यचकित हुए हैं । "

सेनापति आभू ने उत्तर दिया , " मेरा अहिंसाव्रत मेरी आत्मा से संबन्धित हैं देश या राज्य का रक्षण यह तो मेरा परम कर्तव्य है इसके लिए वध करने अथवा हिंसा करने की आवश्यकता पड़े तो ऐसा करना मेरा परम धर्म समझता हूँ मेरा शरीर राष्ट्र की संपत्ति है , इसलिए राष्ट्र की आज्ञा एवं आवश्यकता अनुसार उसका उपयोग होना चाहिए शरीर में बसी आत्मा तथा मन मेरी अपनी संपत्ति है उन दोनों को हिंसाभाव से दूर रखना ही मेरे अहिंसा व्रत का लक्षण है ।"

सेनापति आभू का देशप्रेम और धर्मनिष्ठा देखकर सबके मस्तक झुक गये !

साभार : जिनशासन की कीर्तिगाथा