दृढ़ नियम पालक
(ईस्वीसन १९९५)
अहमदाबाद स्थित एक बहुत बड़े संघ के वे ट्रस्टी थे । ट्रस्टी के अनुरूप सारे आचारों से युक्त एवं धर्मप्रेमी थे। शासन के छोटे-बड़े कामों में भी अचूक भाग लेते थे।
एक बार वे अपने पारिवारिक गुरुदेव के पास सपरिवार वंदन करने के लिए गए। पूज्य गुरुदेव के साथ सत्संग चल रहा था तब उनकी श्राविका ने गुरुदेव के समक्ष एक बात रखी।
"गुरुदेव! आपको पाकर श्रावक बहुत सुन्दर आराधना कर रहे हैं पर उनमें एक चंद्र में दाग जैसा एक अवगुण है। उनको क्रोध बहुत आता है। छोटी-छोटी बातों पर गुस्सा करके सामने वाले व्यक्ति को अपमानित करते हैं, उपेक्षा करते हैं। उनके क्रोध से सारा घर-परिवार डरता रहता है। बस, साहबजी! इस क्रोध का कोई इलाज कीजिये। आप हमारे दोष निवारक डॉक्टर हैं। आप हमारे शरीर के नहीं पर आत्मा के डॉक्टर हैं। आप यदि इतना उपचार कर देंगे तो हम सबको बहुत आनंद होगा।"
बात अभी ख़त्म हुई ही थी कि गुरुभक्त ने कह दिया, "गुरुदेव! श्राविका जो कह रही है वह नितांत सत्य बात है। मुझे क्रोध बहुत परेशान करता है। क्रोध हो जाने के पश्चात् मुझे बहुत दु:ख अनुभव होता है लेकिन पुन: क्रोधाग्नि धधक उठती है। मैं भी इस क्रोध दोष से त्रस्त हूँ। उससे अब उब गया हूँ। घर में या ऑफिस में या संघ में या अन्यत्र मैं हर जगह अप्रिय हो गया हूँ। गुरुदेव! कुछ कीजिये। मुझे इस दोष से बचा लिजिये अन्यथा मैं ख़त्म हो जाऊंगा।"
पूज्य गुरुदेव ने अपनी मीठी जबान में कहा, “धन्यवाद! आपको बहुत बहुत धन्यवाद। आपको अपना दोष महसूस तो होता है। अन्यथा कई लोग उसे विशेष गुण समझते हुए कहते हैं कि, ‘थोडी सख्ती तो होनी ही चाहिए। अन्यथा सारे लोग सिर पर सवार हो जाएँगे।‘ दूसरे, यह दोष तुम्हें पीड़ा देता है, उसके प्रति धिक्कार भाव है और उसे दूर करने की तुम्हारी चाह है। यह तुम्हारी दूसरी विशेषता है। भाग्यशाली! दोष निवारण की 80% प्रक्रिया तो तुम्हारी इसी विशेषता के रहते पूरी हो गई है। अब मुझे तो एक छोटी सी प्रक्रिया करके यशस्वी होना है।”
"कहिये गुरुदेव! अब मुझे क्या करना होगा? आप प्रक्रिया का प्रारंभ कीजिये। मैं तैयार हूँ, जिससे मेरा छुटकारा हो जाये।"
"सुनो! तुम्हें एक नियम लेना है।"
"कैसा?"
गुरुदेव को मालूम था कि यह धर्मात्मा पैसों के मामले में बहुत उदारदिल नहीं थे। पैसा निकालना उनके लिए दुरूह कार्य था। अत: कहा, "जितनी बार तुम्हें क्रोध आये उतनी बार एक हजार रुपये भंडार में भरने हैं।"
हकीकत में यह नियम बड़ा मुश्किल लगा, पर क्रोध की भयानकता उनकी समझ में बराबर आ गई थी। अत: नियम ग्रहण करने के लिए तत्पर हो गए और करबद्ध होकर बड़ी दृढ़ता के साथ कहने लगे-
"गुरुदेव! मुझे नियम दे दीजिये। मैं तैयार हूँ।"
"कितने वर्ष के लिए?"
"आजीवन।"
गुरुदेव ने उसके उल्लास, नियम पालन की दृढ़ता आदि को परखते हुए आजीवन व्रतपालन का संकल्प दे दिया। घर के सारे सदस्य सविशेष उनकी श्राविका और स्वयं आनंद से झूमने लगे। श्राविका की आँख से तो श्रावक के इस भीष्म पराक्रम पर हर्षाश्रु बहने लगे क्योंकि उन्होंने अपने भयानक दोष को जानते हुए भी उन्होंने नियम धारण किया था।
गुरुदेव भी आनंदपूर्वक कह उठे, "खूब खूब धन्यवाद। आज तुमने कमाल कर दिया" और मंत्रित करके वासक्षेप दान किया।
नियम धारण कर लेने के एक महीने बाद वह श्रावक गुरुदेव से मिलने के लिए गए।
"संकल्प टूटा तो नहीं? क्रोध तो नहीं आ रहा? अभी तो वह श्रावक वंदन कर ही रहे थे कि गुरुदेव ने सवाल पूछ लिए।
वंदन पूर्ण करके श्रावक ने कहा, "गुरुदेव! आपकी कृपा से रोज दिन में कम से कम दो बार क्रोध करने वाले मैं ने एक महीने में मात्र दो ही बार क्रोध किया है, और मैं ने भंडार में दो हजार रुपये भर दिए हैं। अब ऐसा लगता है कि अब पुन: एक भी रूपया क्रोधवश भंडार में भरना नहीं पड़ेगा।”
अभी भी वह श्रावक हयात हैं उसके बाद उन्होंने जीवन में एक भी बार क्रोध नहीं किया।
धन्य है दृढ नियम-पालक श्रावक ....
दोष निवारण का सुन्दर उपाय। दोष के खिलाफ दंड रख दो।